Bhagwat geeta chapter 2 | श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय 2
Chapter-2
द्वितीयोऽध्यायः ~ सांख्ययोग
Geeta chapter 2 shloka 01-10
(Krishna-arjuna conversation)
संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥2.1॥
sañjaya uvāca
taṅ tathā kṛpayā.viṣṭamaśrupūrṇākulēkṣaṇam.
viṣīdantamidaṅ vākyamuvāca madhusūdanaḥ 2.1
Meaning-Sanjaya said: Seeing Arjuna full of compassion and very sorrowful, his eyes brimming with tears, Madhusudana, Krishna, spoke the following words.
भावार्थ : संजय बोले- वैसी कायरता से व्याप्त हुए और आँसुओं से जिनके नेत्रों की दृष्टि अवरुद्ध हो रही है वे अर्जुन जो की विषाद कर रहे है उनके प्रति भगवान मधुसूदन यह वचन बोले.
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥2.2॥
śrī bhagavānuvāca
kutastvā kaśmalamidaṅ viṣamē samupasthitam.
anāryajuṣṭamasvargyamakīrtikaramarjuna 2.2
गीता अध्याय 2 श्लोक 02 | geeta chapter 2 verse 02
Meaning- The Supreme Person [Bhagavan] said: My dear Arjuna, how have these impurities come upon you? They are not at all befitting a man who knows the progressive values of life. They do not lead to higher planets, but to infamy.
भावार्थ : श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! इस विषम अवसर पर तुम्हे यह कायरता कहा से प्राप्त हुई? जिसका न तो श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा सेवन किया जाता है, न ही यह स्वर्ग को देने वाली है और न ही कीर्ति को करने वाली ही है.
गीता अध्याय 2 श्लोक 03 | geeta chapter 2 verse 03
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥2.3॥
klaibyaṅ mā sma gamaḥ pārtha naitattvayyupapadyatē.
kṣudraṅ hṛdayadaurbalyaṅ tyaktvōttiṣṭha parantapa 2.3
Meaning-0 son of Prtha, do not yield to this degrading impotence. It does not become you. Give up such petty weakness of heart and arise, 0 chastiser of the enemy.
भावार्थ : हे पृथानंदन अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुम्हारे में यह उचित नहीं है। हे परंतप! हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खडे हो जाओ.
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥2.4॥
arjuna uvāca
kathaṅ bhīṣmamahaṅ saṅkhyē drōṇaṅ ca madhusūdana.
iṣubhiḥ pratiyōtsyāmi pūjārhāvarisūdana 2.4
गीता अध्याय 2 श्लोक 04 | geeta chapter 2 verse 04
Meaning- Arjuna said: 0 killer of Madhu [ Krishna], how can I counterattack with arrows in battle men like Bhishma and Drona, who are worthy of my worship?
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के साथ बाणों से युद्ध लडू? क्योंकि हे अरिसूदन! ये दोनों ही पूजा के योग्य हैं.
गीता अध्याय 2 श्लोक 05 | geeta chapter 2 verse 05
गुरूनहत्वा हि महानुभावान श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥2.5॥
gurūnahatvā hi mahānubhāvān
śrēyō bhōktuṅ bhaikṣyamapīha lōkē.
hatvārthakāmāṅstu gurūnihaiva
bhuñjīya bhōgān rudhirapradigdhān 2.5
Meaning- It is better to live in this world by begging than to live at the cost of the lives of great souls who are my teachers. Even though they are avaricious, they are nonetheless superiors. If they are killed, our spoils will be tainted with blood.
भावार्थ : महानुभाव गुरुजनों को न मारकर इस लोक में , मैं भिक्षा का अन्न खाना भी श्रेष्ट समझता हूँ क्योंकि गुरुजनों को मारकर यहाँ में रक्त से सने हुए तथा धन की कामना की मुख्यतावाले भोगों को ही तो भोगूँगा.
गीता अध्याय 2 श्लोक 06 | geeta chapter 2 verse 06
Meaning-Nor do we know which is better-conquering them or being conquered by them. The relatives of Dhrtarashtra, whom if we killed we should not care to live, are now standing before us on this battlefield. भावार्थ : हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना या न करना- इन दोनों में से कौन-सा अत्यंत श्रेष्ठ है, अथवा हम उन्हें जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे। और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही ध्रतराष्ट्र के सम्बन्धी हमारे सामने युद्ध में खड़े हैं.
गीता अध्याय 2 श्लोक 07 | geeta chapter 2 verse 07
Meaning-Now I am confused about my duty and have lost all composure because of weakness. In this condition I am asking You to tell me clearly what is best for me. Now I am Your disciple, and a soul surrendered unto You. Please instruct me. भावार्थ : इसलिए कायरता रूप दोष से तिरस्कृत स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित अंतःकरण वाला मैं आपसे पूछता हूँ कि जो निश्चित कल्याणकारक बात हो, वह मेरे लिए कहिए। मैं आपका शिष्य हूँ,आपके शरण हुए मुझ को शिक्षा दीजिए।
गीता अध्याय 2 श्लोक 08 | geeta chapter 2 verse 08
Meaning-I can find no means to drive away this grief which is drying up my senses. I will not be able to destroy it even if I win an unrivaled kingdom on the earth with sovereignty like the demigods in heaven. भावार्थ : कारण कि पृथ्वी पर शत्रुरहित, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपन को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके।
गीता अध्याय 2 श्लोक 09 | geeta chapter 2 verse 09
Meaning-Sanjaya said: Having spoken thus, Arjuna, chastiser of enemies, told Krishna, "Govinda, I shall not fight," and fell silent. भावार्थ : संजय बोले- हे राजन्! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी श्रीकृष्ण से 'युद्ध नहीं करूँगा' इस प्रकार स्पष्ट वचन कहकर चुप हो गए
गीता अध्याय 2 श्लोक 10 | geeta chapter 2 verse 10
Meaning-0 descendant of Bharata, at that time Krishna, smiling, in the midst of both the armies, spoke the following words to the grief-stricken Arjuna.
भावार्थ : हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के मध्य भाग में विषाद करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से यह वचन बोले.
Geeta chapter 2 shloka 11-30
(Sankhya Yog)
श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥2.11॥
śrī bhagavānuvāca
aśōcyānanvaśōcastvaṅ prajñāvādāṅśca bhāṣasē.
gatāsūnagatāsūṅśca nānuśōcanti paṇḍitāḥ 2.11
Meaning-The Lord said: While speaking learned words, you are mourning for what is not worthy of grief. Those who are wise lament neither for the living nor the dead.
भावार्थ : श्री भगवान बोले, हे अर्जुन! तूने शोक न करने योग्य का शोक किया है और भाषा से विद्वता की बाते करते हो , परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पण्डित(विद्वान्) शोक नहीं करते ।
गीता अध्याय 2 श्लोक 12 | geeta chapter 2 verse 12
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥2.12॥
na tvēvāhaṅ jātu nāsaṅ na tvaṅ nēmē janādhipāḥ.
na caiva na bhaviṣyāmaḥ sarvē vayamataḥ param 2.12
Meaning-Never was there a time when I did not exist, nor you, nor all these kings; nor in the future shall any of us cease to be.
भावार्थ : न तो ऐसा ही है कि किसी काल तु नहीं था, या मैं नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे यह बात भी नही है और इसके बाद भी हम सभी नही होंगे ऐसा भी नही है।
गीता अध्याय 2 श्लोक 13 | geeta chapter 2 verse 13
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥2.13॥
dēhinō.sminyathā dēhē kaumāraṅ yauvanaṅ jarā.
tathā dēhāntaraprāptirdhīrastatra na muhyati 2.13
Meaning-As the embodied soul continually passes, in this body, from boyhood to youth to old age, the soul similarly passes into another body at death. The self-realized soul is not bewildered by such a change.
भावार्थ : जैसे देहधारी(जीवात्मा) की इस देह में बचपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही मृत्यु पश्चात दुसरे शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होते।
गीता अध्याय 2 श्लोक 14 | geeta chapter 2 verse 14
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥2.14॥
mātrāsparśāstu kauntēya śītōṣṇasukhaduḥkhadāḥ.
āgamāpāyinō.nityāstāṅstitikṣasva bhārata 2.14
Meaning-0 son of Kunti, the nonpermanent appearance of happiness and distress, and their disappearance in due course, are like the appearance and disappearance of winter and summer seasons. They arise from sense perception, 0 scion of Bharata, and one must learn to tolerate them without being disturbed.
भावार्थ : हे कुंतीपुत्र! इन्द्रियों के विषय तो शीत(अनुकूलता) तथा उष्ण(प्रतिकूलता) के द्वारा सुख और दुःख देने वाले है तथा आनेजाने वाले है व अनित्य है। इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर ।
गीता अध्याय 2 श्लोक 15 | geeta chapter 2 verse 15
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥2.15॥
yaṅ hi na vyathayantyētē puruṣaṅ puruṣarṣabha.
samaduḥkhasukhaṅ dhīraṅ sō.mṛtatvāya kalpatē 2.15
Meaning-0 best among men [ Arjuna] the person who is not disturbed by happiness and distress and is steady in both is certainly eligible for liberation.
भावार्थ : कारण की हे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन! दुःख-सुख में सम रहने वाले जिस धीर पुरुष को ये मात्रास्पर्श पदार्थ व्याकुल नहीं करते, वह अमर होने में समर्थ अर्थात् वह अमर हो जाता है।
गीता अध्याय 2 श्लोक 16 | geeta chapter 2 verse 16
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥2.16॥
nāsatō vidyatē bhāvō nābhāvō vidyatē sataḥ.
ubhayōrapi dṛṣṭō.ntastvanayōstattvadarśibhiḥ 2.16
Meaning-Those who are seers of the truth have concluded that of the nonexistent there is no endurance, and of the existent there is no cessation. This seers have concluded by studying the nature of both.
भावार्थ : असत् का तो भाव(सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा एवं अनुभव किया गया है।
गीता अध्याय 2 श्लोक 17 | geeta chapter 2 verse 17
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥2.17॥
avināśi tu tadviddhi yēna sarvamidaṅ tatam.
vināśamavyayasyāsya na kaśicat kartumarhati 2.17
Meaning-Know that which pervades the entire body is indestructible. No one is able to destroy the imperishable soul.
भावार्थ : अविनाशी तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।
गीता अध्याय 2 श्लोक 18 | geeta chapter 2 verse 18
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥2.18॥
antavanta imē dēhā nityasyōktāḥ śarīriṇaḥ.
anāśinō.pramēyasya tasmādyudhyasva bhārata 2.18
Meaning- Only the material body of the indestructible, immeasurable and eternal living entity is subject to destruction; therefore, fight, 0 descendant of Bharata.
भावार्थ : इस अविनाशी, अप्रमेय(जानने में न आनेवाले), नित्य रहने वाले शरीरी(जीवात्मा) के ये सब शरीर अंतवाले कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तूम युद्ध करो।
गीता अध्याय 2 श्लोक 19 | geeta chapter 2 verse 19
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥2.19॥
ya ēnaṅ vētti hantāraṅ yaścainaṅ manyatē hatam.
ubhau tau na vijānītō nāyaṅ hanti na hanyatē 2.19
Meaning- He who thinks that the living entity is the slayer or that he is slain, does not understand. One who is in knowledge knows that the self slays not nor is slain.
भावार्थ : जो इस अविनाशी शरीरी(आत्मा) को मारने वाला समझता है या जो मनुष्य ईसको मरा मानता है, वे दोनों ही इसको नहीं जानते क्योंकि यह(शरीरी) वास्तव में न तो किसी को मारता है और न ही किसी के द्वारा मारा जाता है।
गीता अध्याय 2 श्लोक 20 | geeta chapter 2 verse 20
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥2.20॥
na jāyatē mriyatē vā kadāci-nnāyaṅ bhūtvā bhavitā vā na bhūyaḥ.
ajō nityaḥ śāśvatō.yaṅ purāṇō na hanyatē hanyamānē śarīrē 2.20
Meaning-For the soul there is never birth nor death. Nor, having once been, does he ever cease to be. He is unborn, eternal, ever-existing, undying and primeval. He is not slain when the body is slain.
भावार्थ : यह शरीरी(आत्मा) न तो जन्मता है और न कभी मरता ही है तथा यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला नही है क्योंकि यह जन्मरहित, नित्य रहने वाला , शाश्वत और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह(शरीरी) नहीं मारा जाता ।
गीता अध्याय 2 श्लोक 21 | geeta chapter 2 verse 21
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥2.21॥
vēdāvināśinaṅ nityaṅ ya ēnamajamavyayam.
kathaṅ sa puruṣaḥ pārtha kaṅ ghātayati hanti kam 2.21
Meaning-0 Partha, how can a person who knows that the soul is indestructible, unborn, eternal and immutable, kill anyone or cause anyone to kill?
भावार्थ : हे पृथानंदन अर्जुन! जो मनुष्य इस शरीरी (आत्मा) को अविनाशी, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मारे या कैसे किसको मरवाए?
गीता अध्याय 2 श्लोक 22 | geeta chapter 2 verse 22
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥2.22॥
vāsāṅsi jīrṇāni yathā vihāya navāni gṛhṇāti narō.parāṇi.
tathā śarīrāṇi vihāya jīrṇā-nyanyāni saṅyāti navāni dēhī 2.22
Meaning-As a person puts on new garments, giving up old ones, similarly, the soul accepts new material bodies, giving up the old and useless ones
भावार्थ : जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोडकर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, ऐसे ही यह देहि(जीवात्मा) पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।
गीता अध्याय 2 श्लोक 23 | geeta chapter 2 verse 23
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥2.23॥
nainaṅ chindanti śastrāṇi nainaṅ dahati pāvakaḥ.
na cainaṅ klēdayantyāpō na śōṣayati mārutaḥ 2.23
Meaning-The soul can never be cut into pieces by any weapon, nor can he be burned by fire, nor moistened by water, nor withered by the wind.
भावार्थ : शस्त्र इस आत्मा को नहीं काट सकते, अग्नि इसे नहीं जला सकती, जल इसको गीला नही कर सकता और वायु इसे नहीं सुखा सकता।
गीता अध्याय 2 श्लोक 24 | geeta chapter 2 verse 24
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥2.24॥
acchēdyō.yamadāhyō.yamaklēdyō.śōṣya ēva ca.
nityaḥ sarvagataḥ sthāṇuracalō.yaṅ sanātanaḥ 2.24
Meaning-This individual soul is unbreakable and. insoluble, and can be neither burned nor dried. He is everlasting, all-pervading, unchangeable, immovable and eternally the same.
भावार्थ :यह शरीरी(आत्मा) अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य(गीली न की जा सकनेवाली) और निःसंदेह अशोष्य है क्योकि यह शरीरी नित्यरहने वाला, सब में परिपूर्ण, स्थिर रहने वाला और सनातन है।
गीता अध्याय 2 श्लोक 25 | geeta chapter 2 verse 25
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥2.25॥
avyaktō.yamacintyō.yamavikāryō.yamucyatē.
tasmādēvaṅ viditvainaṅ nānuśōcitumarhasi 2.25
Meaning-It is said that the soul is invisible, inconceivable, immutable, and unchangeable. Knowing this, you should not grieve for the body.
भावार्थ : यह देहि प्रत्यक्ष नही दीखता, यह चिंतन का विषय नही है और यह निर्विकार है अतः इस शरीरी(आत्मा) को एसा समझ कर तुम्हे शोक नही करना चाहिए ।
गीता अध्याय 2 श्लोक 26 | geeta chapter 2 verse 26
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥2.26॥
atha cainaṅ nityajātaṅ nityaṅ vā manyasē mṛtam.
tathāpi tvaṅ mahābāhō naivaṅ śōcitumarhasi 2.26
Meaning- If, however, you think that the soul is perpetually born and always dies, still you have no reason to lament, 0 mighty-armed.
भावार्थ : अगर तू इस देहि(आत्मा) को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तब भी हे महाबाहो! तुम्हे इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिए।
गीता अध्याय 2 श्लोक 27 | geeta chapter 2 verse 27
जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥2.27॥
jātasya hi dhruvō mṛtyurdhruvaṅ janma mṛtasya ca.
tasmādaparihāryē.rthē na tvaṅ śōcitumarhasi 2.27
Meaning-For one who has taken his birth, death is certain; and for one who is dead, birth is certain. Therefore, in the unavoidable discharge of your duty, you should not lament.
भावार्थ : कारण की जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इस जन्म मरण का निवारण नही हो सकता अतः जिसका निवारण नही हो सकता उसके लिए तुम्हे शोक नही करना चाहिए ।
गीता अध्याय 2 श्लोक 28 | geeta chapter 2 verse 28
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥2.28॥
avyaktādīni bhūtāni vyaktamadhyāni bhārata.
avyaktanidhanānyēva tatra kā paridēvanā 2.28
Meaning- All created beings are unmanifest in their beginning, manifest in their interim state, and unmanifest again when they are annihilated. So what need is there for lamentation?
भावार्थ : हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाएँगे, ये केवल बीच में ही प्रकट दीखते हैं, अतः ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?
गीता अध्याय 2 श्लोक 29 | geeta chapter 2 verse 29
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोतिश्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥2.29॥
āścaryavatpaśyati kaśicadēna-māścaryavadvadati tathaiva cānyaḥ.
āścaryavaccainamanyaḥ śrṛṇōti śrutvāpyēnaṅ vēda na caiva kaśicat 2.29
Meaning- Some look on the soul as amazing, some describe him as amazing, and some hear of him as amazing, while others, even after hearing about him, cannot understand him at all.
भावार्थ : कोई इस शरीरी(आत्मा) को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई इसके तत्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता।
गीता अध्याय 2 श्लोक 30 | geeta chapter 2 verse 30
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥2.30॥
dēhī nityamavadhyō.yaṅ dēhē sarvasya bhārata.
tasmātsarvāṇi bhūtāni na tvaṅ śōcitumarhasi 2.30
Meaning- 0 descendant of Bharata, he who dwells in the body is eternal and can never be slain. Therefore you need not grieve for any creature.
भावार्थ : हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! सबके शरीर में यह शरीरी नित्य ही अवध्य है । इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों अर्थात किसी भी प्राणी के लिए तुम्हे शोक नहीं करना चाहिए ।
Geeta chapter 2 shloka 31-38
स्वधर्म व युद्ध की आवश्यकता
(Need of battle and Self duty)
गीता अध्याय 2 श्लोक 31 | geeta chapter 2 verse 31
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥2.31॥
svadharmamapi cāvēkṣya na vikampitumarhasi.
dharmyāddhi yuddhāchrēyō.nyatkṣatriyasya na vidyatē 2.31
Meaning- Considering your specific duty as a kshtriya, you should know that there is no better engagement for you than fighting on religious principles; and so there is no need for hesitation.
भावार्थ : और अपने क्षात्रधर्म को देखकर भी तूम्हे कर्तव्यकर्म से विचलित नही होना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्ममय युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारक कर्तव्य नहीं है।
गीता अध्याय 2 श्लोक 32 | geeta chapter 2 verse 32
यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥2.32॥
yadṛcchayā cōpapannaṅ svargadvāramapāvṛtam.
sukhinaḥ kṣatriyāḥ pārtha labhantē yuddhamīdṛśam 2.32
Meaning- 0 Partha, happy are the kshatriyas to whom such fighting opportunities come unsought, opening for them the doors of the heavenly planets.
भावार्थ : हे पृथानन्दन अर्जुन! अपने-आप प्राप्त हुआ धर्ममय युद्ध खुले हुए स्वर्ग के द्वार के समान ही है। इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं।
गीता अध्याय 2 श्लोक 33 | geeta chapter 2 verse 33
Meaning-If, however, you do not fight this religious war, then you will certainly incur sins for neglecting your duties and thus lose your reputation as a fighter.
भावार्थ : अब यदि तू इस धर्ममय युद्ध को नहीं करेगा तो अपने धर्म और कीर्ति को त्यागकर पाप को प्राप्त होगा ।
गीता अध्याय 2 श्लोक 34 | geeta chapter 2 verse 34
Meaning-People will always speak of your infamy, and for one who has been honored, dishonor is worse than death.
भावार्थ : और सब प्राणी तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और वह अपकीर्ति सम्मानित पुरुष के लिए मरण से भी बढ़कर है ।
गीता अध्याय 2 श्लोक 35 | geeta chapter 2 verse 35
Meaning- The great generals who have highly esteemed your name and fame will think that you have left the battlefield out of fear only, and thus they will consider you a coward.
भावार्थ : और वे महारथी लोग जिनकी धारणा में तू पहले बहुत सम्मानित हो चूका है उनकी दृष्टि में तु लघुता को प्राप्त होगा, वे लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे।
गीता अध्याय 2 श्लोक 36 | geeta chapter 2 verse 36
Meaning-Your enemies will describe you in many unkind words and scorn your ability. What could be more painful for you?
भावार्थ : तेरे शत्रु लोग तेरी सामर्थ्य की निंदा करते हुए बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे बढ़कर और अधिक दुःख क्या होगा?
गीता अध्याय 2 श्लोक 37 | geeta chapter 2 verse 37
Meaning- 0 son of Kunti, either you will be killed on the battlefield and attain the heavenly planets, or you will conquer and enjoy the earthly kingdom. Therefore get up and fight with determination.
भावार्थ : अगर तू युद्ध में मारा जायेगा तो तु स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतने पर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। अतः हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा।
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥2.38॥
sukhaduḥkhē samē kṛtvā lābhālābhau jayājayau.
tatō yuddhāya yujyasva naivaṅ pāpamavāpsyasi 2.38
Meaning- Do thou fight for the sake of fighting, without considering happiness or distress, loss or gain, victory or defeat-and, by so doing, you shall never incur sin. भावार्थ : हार-जीत, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस तरह युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा ।
गीता अध्याय 2 श्लोक 38 | geeta chapter 2 verse 38
Meaning- Do thou fight for the sake of fighting, without considering happiness or distress, loss or gain, victory or defeat-and, by so doing, you shall never incur sin. भावार्थ : हार-जीत, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस तरह युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा ।
Geeta chapter 2 shloka 39-53
कर्मयोग की शिक्षा
(Preaching of karma yoga)
गीता अध्याय 2 श्लोक 39 | geeta chapter 2 verse 39
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥2.39॥
ēṣā tē.bhihitā sāṅkhyē buddhiryōgē tvimāṅ śrṛṇu.
buddhyāyuktō yayā pārtha karmabandhaṅ prahāsyasi 2.39
Meaning-Thus far I have declared to you the analytical knowledge of sarikhya philosophy. Now listen to the knowledge of karm-yoga whereby one works without fruitive result. 0 son of Prtha, when you act by such intelligence, you can free yourself from the bondage of works.
भावार्थ : हे पार्थ! यह समबुद्धि तेरे लिए पहले सांख्ययोग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन, जिस समबुद्धि से युक्त हुआ तू कर्म-बंधन का त्याग कर देगा ।
गीता अध्याय 2 श्लोक 40 | geeta chapter 2 verse 40
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥2.40॥
nēhābhikramanāśō.sti pratyavāyō na vidyatē.
svalpamapyasya dharmasya trāyatē mahatō bhayāt 2.40
Meaning-In this endeavor there is no loss or diminution, and a little advancement on this path can protect one from the most dangerous type of fear.
भावार्थ : मनुष्यलोक में इस समबुद्धिरूप धर्म(कर्मयोग) के आरंभ का नाश नहीं होता और उसके अनुष्ठान का उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग का थोड़ा-सा भी अनुष्ठान जन्म-मृत्यु रूपी महान भय से रक्षा कर लेता है।
गीता अध्याय 2 श्लोक 41 | geeta chapter 2 verse 41
बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥2.41॥
vyavasāyātmikā buddhirēkēha kurunandana.
bahuśākhā hyanantāśca buddhayō.vyavasāyinām 2.41
Meaning-Those who are on this path are resolute in purpose, and their aim is one. 0 beloved child of the Kurus, the intelligence of those who are irresolute is many-branched.
भावार्थ : हे कुरुनन्दन! इस समबुद्धि(कर्मयोग) में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है। किन्तु अस्थिर विचार वाले मनुष्यों की बुद्धियाँ अनंत व बहुत शाखा वाली होती है ।
गीता अध्याय 2 श्लोक 42 43 | geeta chapter 2 verse 42 43
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥2.42॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥2.43॥
yāmimāṅ puṣpitāṅ vācaṅ pravadantyavipaśicataḥ.
vēdavādaratāḥ pārtha nānyadastīti vādinaḥ 2.42
kāmātmānaḥ svargaparā janmakarmaphalapradām.
kriyāviśēṣabahulāṅ bhōgaiśvaryagatiṅ prati 2.43
Meaning-Men of small knowledge are very much attached to the flowery words of the Vedas, which recommend various fruitive activities for elevation to heavenly planets, resultant good birth, power, and so forth. Being desirous of sense gratification and opulent life, they say that there is nothing more than this.
भावार्थ : हे पृथानन्दन अर्जुन! जो कामनाओ में तन्मय हो रहे हैं,स्वर्ग को ही सबसे उच्च मानते है ,वेद के उन भाग जिनमे कर्मकांड का वर्णन है केवल उनमे ही प्रीति रखते है,भोग-विलास के अन्यत्र कुछ है ही नही ऐसा कहते है वे अविवेकी लोग इस प्रकार की जिस पुष्पित(दिखावटी) वाणी को कहा करते हैं, वह वाणी जन्मरूपी कर्मफल को देने वाली एवं भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार की क्रियाओं का वर्णन करने वाली है।
गीता अध्याय 2 श्लोक 44 | geeta chapter 2 verse 44
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥2.44॥
bhōgaiśvaryaprasaktānāṅ tayāpahṛtacētasām.
vyavasāyātmikā buddhiḥ samādhau na vidhīyatē 2.44
Meaning-In the minds of those who are too attached to sense enjoyment and material opulence, and who are bewildered by such things, the resolute determination of devotional service to the Supreme Lord does not take place.
भावार्थ : उस पुष्पित(दिखावटी) वाणी से जिनका चित्त हर लिया गया है अर्थात भोग-विलास की तरफ खीच लिया गया है, और जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चियात्मिका(एक निश्चय वाली) बुद्धि नहीं होती है ।
गीता अध्याय 2 श्लोक 45 | geeta chapter 2 verse 45
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥2.45॥
traiguṇyaviṣayā vēdā nistraiguṇyō bhavārjuna.
nirdvandvō nityasattvasthō niryōgakṣēma ātmavān 2.45
Meaning- The. Vedas mainly deal with the subject of the three modes of material nature. Rise above these modes, 0 Arjuna. Be transcendental to all of them. Be free from all dualities and from all anxieties for gain and safety, and be established in the Self.
भावार्थ : हे अर्जुन! वेद तीन प्रकार के गुणों(सतो,रजो,तमो गुण) के कार्यो का ही वर्णन करने वाले है , तू उन तीनो गुणों से रहित हो जा , नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम 'योग' है।) क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम 'क्षेम' है।) की चाह न रखकर परमात्मपरायण हो जा ।
गीता अध्याय 2 श्लोक 46 | geeta chapter 2 verse 46
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥2.46॥
yāvānartha udapāne sarvataḥ samplutodake
tāvānsarveṣu vedeṣu brāhmaṇasya vijānataḥ 2.46
Meaning-All purposes that are served by the small pond can at once be served by the great reservoirs of water. Similarly, all the purposes, of the Vedas can be served to one who knows the purpose behind them.
भावार्थ : सब तरफ से परिपूर्ण बड़े जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे गड्ढो में भरे जल में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है(अर्थात कोई प्रयोजन नही रहता), वेदों और शास्त्रों को तत्व से जानने वाले ब्रम्हज्ञानी का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है(अर्थात कोई प्रयोजन नही रहता)।
गीता अध्याय 2 श्लोक 47 | geeta chapter 2 verse 47
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥2.47॥
karmaṇyevādhikāraste mā phaleṣu kadācana
mā karmaphalaheturbhurmā te saṃṅgo'stvakarmaṇi 2.47
Meaning- You have a right to perform your prescribed duty, but you are not entitled to the fruits of action. Never consider yourself to be the cause of the results of your activities, and never be attached to not doing your duty.
भावार्थ : तेरा कर्तव्यकर्म करने में ही अधिकार है, उनके फलों में कभी नहीं। कर्मफल का हेतु(कारण) भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता(कर्म न करना) में भी आसक्ति न हो ।
गीता अध्याय 2 श्लोक 48 | geeta chapter 2 verse 48
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥2.48॥
yogasthaḥ kuru karmāṇi saṅgaṃ tyaktvā dhanañjaya
siddhayasiddhayoḥ samo bhūtvā samatvaṃ yoga ucyate 2.48
Meaning-Be steadfast in yoga, 0 Arjuna. Perform your duty and abandon all attachment to success or failure. Such evenness of mind is called yoga.
भावार्थ : हे धनंजय! तू आसक्ति त्यागकर करके सिद्धि और असिद्धि में सम होकर योग में स्थित हुआ कर्मो को कर, क्योकि समत्व(सुख-दुःख में समान रहना) ही योग कहा जाता है॥48॥
गीता अध्याय 2 श्लोक 49 | geeta chapter 2 verse 49
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतव: ॥2.49॥
dūreṇa hyavaraṃ karma buddhiyogāddhanañjaya
buddhau śaraṇamanviccha kṛpaṇāḥ phalahetavah 2.49
Meaning-0 Dhanaiijaya, rid yourself of all fruitive activities by devotional service, and surrender fully to that consciousness. Those who want to enjoy the fruits of their work are misers.
भावार्थ : बुद्धियोग(समता) की अपेक्षा सकाम(फल की इच्छा रखकर कर्म करना) कर्म दूर से ही निकृष्ट है। अतएव हे धनंजय! तू बुद्धि(समता) की ही शरण ले क्योंकि फल के हेतु(कारण) बनने वाले अत्यन्त दीन हैं।
गीता अध्याय 2 श्लोक 50 | geeta chapter 2 verse 50
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥2.50॥
buddhiyukto jahātīha ubhe sukṛtaduṣkṛte
tasmādyogāya yujyasva yogaḥ karmasu kauśalam 2.50
Meaning-A man engaged in devotional service rids himself of both good and bad actions even in this life. Therefore strive for yoga, 0 Arjuna, which is the art of all work.
भावार्थ : बुद्धि(समता) से युक्त पुरुष इसी जन्म में पाप और पुण्य का त्याग कर देता है। इसलिए तु योग(समता)
में लग जा क्योकि कर्मो में योग(समता), ही कुशलता है ।
गीता अध्याय 2 श्लोक 51 | geeta chapter 2 verse 51
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥2.51॥
karmajaṃ buddhiyuktā hi phalaṃ tyaktvā manīṣiṇaḥ
janmabandhavinirmuktāḥ padaṃ gacchantyanāmayam 2.51
Meaning-The wise, engaged in devotional service, take refuge in the Lord, and free themselves from the cycle of birth and death by renouncing the fruits of action in the material world. In this way they can attain that state beyond all miseries.
भावार्थ : कारण की समतायुक्त बुद्धिमान पुरुष कर्मजन्य(कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल) का त्यागकर जन्मरूप बंधन से मुक्त होकर निर्विकार पद को प्राप्त हो जाता हैं।
गीता अध्याय 2 श्लोक 52 | geeta chapter 2 verse 52
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥2.52॥
yadā te mohakalilaṃ buddhirvyatitariṣyati
tadā gantāsi nirvedaṃ śrotavyasya śrutasya ca 2.52
Meaning- When your intelligence has passed out of the dense forest of delusion, you shall become indifferent to all that has been heard and all that is to be heard.
भावार्थ : जिस समय में तेरी यह बुद्धि मोहरूपी दलदल को भलीभाँति पार कर जाएगी, उसी समय तु सुने हुए तथा सुनने में आने वाले सभी भोगों से मुक्त होकर वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा।
गीता अध्याय 2 श्लोक 53 | geeta chapter 2 verse 53
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥2.53॥
śrutivipratipannā te yadā sthāsyati niścalā
samādhāvacalā buddhistadā yogamavāpsyasi 2.53
Meaning- When your mind is no longer disturbed by the flowery language of the Vedas, and when it remains fixed in the trance of self-realization, then you will have attained the Divine consciousness.
भावार्थ : जिस कल में शास्त्रीय मतभेदों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि निश्चल हो जाएगी और परमतत्व में स्थित हो जाएगी उस समय में तु योग को प्राप्त हो जाएगा ।
Geeta chapter 2 shloka 54-72
स्थितप्रज्ञ मनुष्य के गुणधर्म
(Characteristics of one whose consciousness is thus merged in Transcendence)
अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥2.54॥
sthitaprajñasya kā bhāṣā samādhisthasya kēśava ।
sthitadhīḥ kiṃ prabhāṣēta kimāsīta vrajēta kim ॥2.54॥
Meaning: Arjuna said: What are the symptoms of one whose consciousness is thus
merged in Transcendence? How does he speak, and what is his language?
How does he sit, and how does he walk?
भावार्थ : हे केशव परमात्मा में स्थित स्थिरबुद्धि वाले मनुष्य के क्या लक्षण होते है ? वह केसे बोलता है ? कैसे बेठता है ? कैसे चलता है? अर्थात् कैसे व्यव्हार करता है ?
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥2.55॥
prajahāti yadā kāmān sarvānpārtha manōgatān ।
ātmayēvātmanā tuṣṭaḥ sthitaprajñastadōcyatē ॥2.55॥
Meaning: The Blessed Lord said: 0 Partha, when a man gives up all varieties of sense desire which arise from mental concoction, and when his mind finds satisfaction in the self alone, then he is said to be in pure transcendental consciousness.
भावार्थ : श्री भगवान बोले - हे पृथा नंदन अर्जुन ! जिस समय में साधक मन में आई सभी कामनाओ (इच्छाओ) का अच्छे से त्याग कर देता है और अपने आप में ही संतुष्ट रहता है उस समय में वह स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥2.56॥
duḥkhēṣvanudvignamanāḥ sukhēṣu vigataspṛhaḥ ।
vītarāgabhayakrōdhaḥ sthitadhīrmunirucyatē ॥2.56॥
Meaning: One who is not disturbed in spite of the threefold miseries, who is not elated when there is happiness, and who is free from attachment, fear, and anger, is called a sage of steady mind.
भावार्थ : दुःख आने पर जिसका मन विचलित नही होता और सुख आने पर जिसके मन में स्पृहा नही होती तथा जो राग,भय,क्रोध से रहित हो गया हो वह मननशील मनुष्य स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥2.57॥
yaḥ sarvatrānabhisnēhastattatprāpya śubhāśubham ।
nābhinaṃdati na dvēṣṭi tasya prajñā pratiṣṭhitā ॥2.57॥
Meaning: He who is without attachment, who does not rejoice when he obtains good, nor lament when he obtains evil, is firmly fixed in perfect knowledge.
भावार्थ : जो पुरुष सर्वत्र आसक्तिरहित होकर उस-उस शुभ या अशुभ के प्राप्त होने पर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उस मनुष्य की बुद्धि स्थिर है ।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥2.58॥
yadā saṃharatē cāyaṃ kūrmō'ṅganīva sarvaśaḥ ।
indriyāṇīndriyārthēbhyastasya prajñā pratiṣṭhitā ॥2.58॥
Meaning: One who is able to withdraw his senses from sense objects, as the tortoise draws his limbs within the shell, is to be understood as truly situated in knowledge.
भावार्थ : जिस प्रकार कछुआ सब तरफ से अपने अंगो को समेट लेता है उसी प्रकार यदि मनुष्य अपनी इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब तरह से हटा देता है तब उस मनुष्य की बुद्धि स्थिर हो जाती है ।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ॥2.59॥
viṣayā vinivartantē nirāhārasya dēhinaḥ ।
rasavarjaṃ rasō'pyasya paraṃ dṛṣṭavā nivartatē ॥2.59॥
Meaning: The embodied soul may be restricted from sense enjoyment, though experiencing the taste for sense objects remains. But, ceasing such engagements by a higher taste, he is fixed in consciousness.
भावार्थ : इन्द्रियों को विषय से हटाने वाले मनुष्य के विषय तो निवृत हो जाते है लेकिन रस निवृत नही होता परन्तु इस परमात्व तत्व के साक्षात्कार होने से स्थितप्रज्ञ मनुष्य के रस भी निवृत हो जाते है ।
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥2.60॥
yatatō hyapi kauntēya puruṣasya vipaścitaḥ ।
indriyāṇi pramāthīni haranti prasabhaṃ manaḥ ॥2.60॥
Meaning: The senses are so strong and impetuous, 0 Arjuna, that they forcibly carry away the mind even of a man of discrimination who is endeavoring to control them.
भावार्थ : कारण की अर्जुन, रस रहने से ये प्रमथनशील इन्द्रिया मनुष्य के मन को बल पूर्वक हर लेती है ।
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥2.61॥
tāni sarvāṇi saṃyamya yukta āsīta matparaḥ ।
vaśē hi yasyēndriyāṇi tasya prajñā pratiṣṭhitā ॥2.61॥
Meaning: One who restrains his senses and fixes his consciousness upon Me is known as a man of steady intelligence.
भावार्थ : साधक सभी इन्द्रियों को वश में कर मेरे परायण होकर बैठे क्योकि जिसकी इन्द्रिया उसके वश में है उसकी बुद्धि स्थिर है ।
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥2.62॥
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥2.63॥
dhyāyatō viṣayānpuṃsaḥ saṃgastēṣūpajāyatē ।
saṃgātsaṃjāyatē kāmaḥ kāmātkrōdhō'bhijāyatē ॥2.62॥
krōdhādbhavati sammōhaḥ sammōhātsmṛtivibhramaḥ ।
smṛtibhraṃśād buddhināśō buddhināśātpraṇaśyati ॥2.63॥
Meaning: While contemplating the objects of the senses, a person develops attachment for them, and from such attachment, lust develops, and from lust, anger arises. From anger, delusion arises, and from delusion bewilderment of memory. When memory is bewildered, intelligence is lost, and when intelligence is lost, one falls down again into the material pool.
भावार्थ : विषयों का चिन्तन करने से पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, उस आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में बाधा पड़ने पर क्रोध उत्पन्न होता है ,क्रोध से सम्मोह(मूढ़ भाव) उत्पन्न होता है, सम्मोह(मूढ़ भाव) से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि(विवेक) का नाश हो जाता है और बुद्धि(विवेक) का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है ।
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥2.64॥
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥2.65॥
rāgadvēṣaviyuktaistu viṣayānindriyaiścaran ।
ātmavaśyairvidhēyātmā prasādamadhigacchati ॥2.64॥
prasādē sarvaduḥkhānāṃ hānirasyōpajāyatē ।
prasannacētasō hyāśu buddhiḥ paryavatiṣṭhatē ॥2.65॥
Meaning: One who can control his senses by practicing the regulated principles of freedom can obtain the complete mercy of the Lord and thus become free from all attachment and aversion. For one who is so situated in the Divine consciousness, the threefold miseries of material existence exist no longer; in such a happy state, one's intelligence soon becomes steady.
भावार्थ : परन्तु जब साधक रागद्वेष से रहित वश में की गई इन्द्रियों से विषयों का सेवन कर अंतःकरण की निर्मलता को प्राप्त होता है, इस अंतःकरण की निर्मलता के प्राप्त होने पर मनुष्य के सारे दुखो का नाश हो जाता है,
और ऐसे शुद्ध चित वाले साधक की बुद्धि निःसंदेह ही परमात्मा में स्थित हो जाती है ।
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥2.66॥
nāsti buddhirayuktasya na cāyuktasya bhāvanā ।
na cābhāvayataḥ śāntiraśāntasya kutaḥ sukham ॥2.66॥
Meaning: One who is not in transcendental consciousness can have neither a controlled mind nor steady intelligence, without which there is no posibility of peace. And how can there be any happiness without peace?
भावार्थ : जिस मनुष्य की मन इन्द्रिया वश में नही है उनकी बुद्धि स्थिर नही होती है और बुद्धि के स्थिर न होने से उस मनुष्य में निष्काम कर्म या कर्तव्य परायणता का भाव नही होता है और निष्काम कर्म या कर्तव्य परायणता का भाव नही होने से मनुष्य को शांति नही होती है और शांति न होने पर सुख कहा से मिलता है?
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥2.67॥
indriyāṇāṃ hi caratāṃ yanmanō'nuvidhīyatē ।
tadasya harati prajñāṃ vāyurnāvamivāmbhasi ॥2.67॥
Meaning: As a boat on the water is swept away by a strong wind, even one of the senses on which the mind focuses can carry away a man's intelligence.
भावार्थ : क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, उसी प्रकार विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस भी इन्द्रिय के साथ रहता है या अनुसरण करता है, वह एक ही इन्द्रिय उस अस्थिर बुद्धि वाले की बुद्धि को हर लेती है ।
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥2.68॥
tasmādyasya mahābāhō nigṛhītāni sarvaśaḥ ।
indriyāṇīndriyārthēbhyastasya prajñā pratiṣṭhitā ॥2.68॥
Meaning: Therefore, 0 mighty-armed, one whose senses are restrained from their objects is certainly of steady intelligence.
भावार्थ : इसलिए हे महाबाहो जिस मनुष्य की इन्द्रिया इन्द्रियों के विषय से सब तरह से वश में की गई है उस मनुष्य की बुद्धि स्थिर है ।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥2.69॥
yā niśā sarvabhūtānāṃ tasyāṃ jāgarti saṃyamī ।
yasyāṃ jāgrati bhūtāni sā niśā paśyatō munēḥ ॥2.69॥
Meaning: What is night for all beings is the time of awakening for the self- .
controlled; and the time of awakening for all beings is night for the
introspective sage.
भावार्थ : सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि(परमात्मा से विमुखता) है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ साधक जागता है और जिस में सब प्राणी जागते हैं(भोग और संग्रह में लगे रहते है ), परमात्मा के तत्व को समझने वाले साधक के लिए वह रात्रि के समान है।
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥2.70॥
āpūryamāṇamacalapratiṣṭhaṃ samudramāpaḥ praviśanti yadvat ।
tadvatkāmā yaṃ praviśanti sarvē sa śāntimāpnōti na kāmakāmī ॥2.70॥
Meaning: A person who is not disturbed by the incessant flow of desires-that enter like rivers into the ocean which is ever being filled but is always still can alone achieve peace, and not the man who strives to satisfy such desires.
भावार्थ : जिस प्रकार सभी नदियों का जल सभी तरह से भरे हुए समुद्र में आकर मिलता है व समुद्र अपनी मर्यादा में स्थित रहता है उसी प्रकार सभी भोग पदार्थ जिस मनुष्य को बिना विकार उत्पन्न किये प्राप्त होते हो वही परमशान्ति को प्राप्त होता है , भोगो की कामना करने वाला नही।
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥2.71॥
vihāya kāmānyaḥ sarvānpumāṃścarati niḥspṛhaḥ ।
nirmamō nirahaṃkāraḥ sa śāntimadhigacchati ॥2.71॥
Meaning: A person who has given up all desires for sense gratification, who lives
free from desires, who has given up all sense of proprietorship and is devoid
of false ego-he alone can attain real peace.
भावार्थ : जो मनुष्य सभी कामनाओ का त्याग कर स्पृहारहित, ममतारहित और अहंताराहित होकर आचरण करता है वही परमशान्ति को प्राप्त होता है ।
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥2.72॥
ēṣā brāhmī sthitiḥ pārtha naināṃ prāpya vimuhyati ।
sthitvāsyāmantakālē'pi brahmanirvāṇamṛcchati ॥2.72॥
Meaning: That is the way of the spiritual and godly life, after attaining which a man is not bewildered. Being so situated, even at the hour of death, one can enter into the kingdom of God.
भावार्थ : हे पृथानन्दन यह ब्राह्मी स्थिति है इस स्थिति को प्राप्त कर कभी कोई मोहित नही होता । यदि यह स्थिति अन्तकाल में भी प्राप्त हो जाए तो भी निर्वाण ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है।
॥ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥
॥oṃ tatsaditi śrīmadbhagavadgītāsūpaniṣatsu brahmavidyāyāṃ yōgaśāstrē śrīkṛṣṇārjunasaṃvādē sāṃkhyayōgō nāma dvitīyō'dhyāyaḥ ॥
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