श्रीमद भगवदगीता अध्याय 3 | Shreemad Bhagwad Geeta Chapter 3

Shreemad Bhagwad Geeta chapter 3 

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Chapter-3  

तृतीयोअध्याय ~ कर्मयोग


    Geeta chapter 3 shloka 01-08

    (Krishna-arjuna conversation)

    गीता  अध्याय 3 श्लोक 01 02 | geeta chapter 3 shloka 01 02


    अर्जुन उवाच
    ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन । तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥3.01
    jyāyasī cētkarmaṇastē matā buddhirjanārdana । tatkiṃ karmaṇi ghōrē māṃ niyōjayasi kēśava ॥
    व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
    तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌ ॥3.02
    vyāmiśrēṇēva vākyēna buddhiṃ mōhayasīva mē । tadēkaṃ vada niścitya yēna śrēyō'hamāpnuyām‌ ॥

    Meaning: Arjuna said: 0 Janardana, 0 Kesava, why do You urge me to engage in this ghastly warfare if You think that intelligence is better than fruitive work? My intelligence is bewildered by Your equivocal instructions. Therefore, please tell me decisively what is most beneficial for me.

    भावार्थ: हे जनार्दन! यदि आप कर्म से बुद्धि(ज्ञान) को श्रेष्ट मानते हो तो हे केशव! आप मुझे इस युद्धरुपी घोर कर्म में क्यों लगाते हो । आप अपनी इस मिश्रित वचनों से मेरी बुद्धि को मोहित सा कर रहे हो अतः आप मुझे निश्चय कर उस एक बात को कहिये जिससे में कल्याण को प्राप्त हो जाऊ।


    गीता  अध्याय 3 श्लोक 03 | geeta chapter 3 shloka 03


    श्रीभगवानुवाच
    लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ । ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌ ॥3.03
    lōkē'smindvividhā niṣṭhā purā prōktā mayānagha ।
    jñānayōgēna sāṅ‍khyānāṃ karmayōgēna yōginām‌ ॥

    Meaning: The Blessed Lord said: 0 sinless Arjuna, I have already explained that there are two classes of men who realize the Self. Some are inclined to understand Him by empirical, philosophical speculation, and others are inclined to know Him by devotional work.

    भावार्थ: हे निष्पाप अर्जुन ! इस मनुष्यलोक में होने वाली दो निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है। उनमे ज्ञानयोगियो की निष्ठा ज्ञानयोग से एवं कर्मयोगियो की निष्ठा कर्मयोग से होती है

    गीता  अध्याय 3 श्लोक 04 | geeta chapter 3 shloka 04


    न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते । न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥3.04
    na karmaṇāmanāraṃbhānnaiṣkarmyaṃ puruṣō'śnutē । na ca sannyasanādēva siddhiṃ samadhigacchati ॥

    Meaning: Not by merely abstaining from work can one achieve freedom from reaction, nor by renunciation alone can one attain perfection.

    भावार्थ: मनुष्य न तो कर्मो का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता का अनुभव करता है और न ही कर्मो के त्याग मात्र से सिद्धि(कर्मयोग या ज्ञानयोग की) को प्राप्त होता है

    गीता  अध्याय 3 श्लोक 05 | geeta chapter 3 shloka 05


    न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌ । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥3.05
    na hi kaścitkṣaṇamapi jātu tiṣṭhatyakarmakṛt‌ । kāryatē hyavaśaḥ karma sarvaḥ prakṛtijairguṇaiḥ ॥

    Meaning: All men are forced to act helplessly according to the impulses born of the modes of material nature; therefore no one can refrain from doing something, not even for a moment.

    भावार्थ: कोई भी मनुष्य कही भी किसी भी अवस्था में क्षण मात्र भी कर्म किये बिना नही रह सकता है। कारण की प्रकृति के परवश हुए सब प्राणियों से प्रकृतिजन्य गुण कर्म करवा ही लेते है


    गीता  अध्याय 3 श्लोक 06 | geeta chapter 3 shloka 06


    कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌ । इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥3.06
    karmēndriyāṇi saṃyamya ya āstē manasā smaran‌ । indriyārthānvimūḍhātmā mithyācāraḥ sa ucyatē ॥

    Meaning: One who restrains the senses and organs of action, but whose mind dwells on sense objects, certainly deludes himself and is called a pretender.

    भावार्थ: जो मनुष्य अपनी कर्मेन्द्रियो को हठपूर्वक रोककर, मन से इन्द्रियों का चिंतन करते हुए बेठता है वह मूढ़बुद्धि वाला मनुष्य मिथ्याचारी कहलाता है


    गीता  अध्याय 3 श्लोक 07 | geeta chapter 3 shloka 07


    यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥3.07
    yastvindriyāṇi manasā niyamyārabhatē'rjuna ।
    karmēndriyaiḥ karmayōgamasaktaḥ sa viśiṣyatē ॥

    Meaning: On the other hand, he who controls the senses by the mind and engages his active organs in works of devotion, without attachment, is by far superior.

    भावार्थ: किन्तु हे अर्जुन! यदि जो मनुष्य मन से इन्द्रियो पर नियंत्रण करके आसक्ति रहित होकर निष्कामभाव से कर्मेन्द्रियो के द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ट है


    गीता  अध्याय 3 श्लोक 08 | geeta chapter 3 shloka 08


    नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः। शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥3.08
    niyataṃ kuru karma tvaṃ karma jyāyō hyakarmaṇaḥ।
    śarīrayātrāpi ca tē na prasiddhayēdakarmaṇaḥ ॥

    Meaning: Perform your prescribed duty, for action, is better than inaction. A man cannot even maintain his physical body without work.

    भावार्थ: तु शास्त्रविधि से नियत किये हुए कर्मो को कर, क्योकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ट है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध न होगा


    Geeta chapter 3 shloka 09-16

    यज्ञ(कर्तव्यपालन) के लिए किये गये कर्मो की आवश्यकता
    (Need of karma(deeds) to follow your duties)

    गीता  अध्याय 3 श्लोक 09 | geeta chapter 3 shloka 09


    यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।
    तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥3.09
    yajñārthātkarmaṇō'nyatra lōkō'yaṃ karmabaṃdhanaḥ ।
    tadarthaṃ karma kauntēya muktasaṃgaḥ samācara ॥

    Meaning: Work done as a sacrifice for god or your duties has to be performed, otherwise work binds one to this material world. Therefore, 0 son of Kunti, perform your prescribed duties for His satisfaction, and in that way you will always remain unattached and free from bondage.

    भावार्थ: यज्ञ(कर्तव्य पालन) के लिए किये गये कर्मो से अन्यत्र(अपने लिए किये गये) कर्मो में लगा हुआ यह मनुष्य समुदाय कर्मो से बंधता है इसलिए हे कौन्तेय! तु आसक्तिरहित होकर उस यज्ञ के लिए ही कर्म को कर


    गीता  अध्याय 3 श्लोक 10  11 | geeta chapter 3 shloka 10 11


    सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
    अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ॥3.10
    sahayajñāḥ prajāḥ sṛṣṭā purōvācaprajāpatiḥ । anēna prasaviṣyadhvamēṣa vō'stviṣṭakāmadhuk‌ ॥
    देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
    परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥3.11
    dēvānbhāvayatānēna tē dēvā bhāvayantu vaḥ ।
    parasparaṃ bhāvayantaḥ śrēyaḥ paramavāpsyatha

    Meaning: In the beginning of creation, the Lord of all creatures sent forth generations of men and demigods, along with sacrifices for your duties, and blessed them by saying, "Be thou happy by this yajna [sacrifice] because its performance will bestow upon you all desirable things." The demigods, being pleased by sacrifices, will also please you thus nourishing one another, there will reign general prosperity for all.

    भावार्थ: प्रजापति ब्रह्माजी ने सृष्टि के आदिकाल से ही कर्ताव्यकर्मोके विधानसहित प्रजा की रचना करके कहा की तुम(मनुष्य आदि) लोग इस कर्तव्य के द्वारा सबकी वृद्धि करो और यह कर्तव्य कर्मरूपी यज्ञ तुम लोगो को कर्तव्य पालन की आवश्यक सामग्री प्रदान करने वाला हो
    इस(कर्तव्यकर्म) के द्वारा तुम लोग देवताओ को उन्नत करो एवं वे (देवता लोग) अपने कर्म के द्वारा तुम लोगो को उन्नत करे इस प्रकार एक दुसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे


    गीता  अध्याय 3 श्लोक 12 | geeta chapter 3 shloka 12


    इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः । तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः ॥3.12
    iṣṭānbhōgānhi vō dēvā dāsyantē yajñabhāvitāḥ । tairdattānapradāyaibhyō yō bhuṃktē stēna ēva saḥ ॥

    Meaning: in charge of the various necessities of life, the demigods, being satisfied by the performance of yajna[sacrifice], supply all necessities to man. But he who enjoys these gifts, without offering them to the demigods in return, is certainly a thief.

    भावार्थ: यज्ञ से पुष्ट हुए देवता भी तुम लोगो को कर्तव्यपालन हेतु आवश्यक सामग्री देते रहेंगे इस प्रकार उन देवताओं की दी हुई सामग्री को दुसरो की सेवा में लगाये बिना ही जो मनुष्य स्वयं उसका उपभोग करता है, वह चोर ही है


    गीता  अध्याय 3 श्लोक 13 | geeta chapter 3 shloka 13


    यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्‌ ॥3.13
    yajñaśiṣṭāśinaḥ santō mucyantē sarvakilbiṣaiḥ । bhuñjatē tē tvaghaṃ pāpā yē pacantyātmakāraṇāt‌ ॥

    Meaning: The devotees of the. Lord are released from all kinds of sins because they eat food which is offered first for sacrifice. Others, who prepare food for personal sense enjoyment, verily eat only sin.

    भावार्थ: यज्ञशेष का अनुभव करने वाले श्रेष्ट मनुष्य सम्पूर्ण पापो से मुक्त हो जाते है परन्तु जो अपने लिए ही पकाते है अर्थात् सब कर्म करते है । वे पापी लोग तो पाप का ही भक्षण करते है


    गीता  अध्याय 3 श्लोक 14 15 | geeta chapter 3 shloka 14 15


    अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥3.14
    annādbhavanti bhūtāni parjanyādannasambhavaḥ । yajñādbhavati parjanyō yajñaḥ karmasamudbhavaḥ ॥
    कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌ ।
    तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌ ॥3.15
    karma brahmōdbhavaṃ viddhi brahmākṣarasamudbhavam‌ ।
    tasmātsarvagataṃ brahma nityaṃ yajñē pratiṣṭhitam‌ ॥

    Meaning: All living bodies subsist on food grains, which are produced from rains. Rains are produced by the performance of yajna [sacrifice], and yajna is born of prescribed duties. Regulated activities are prescribed in the Vedas, and the Vedas are directly manifested from the Supreme Personality of Godhead. Consequently, the all-pervading Transcendence is eternally situated in acts of sacrifice.

    भावार्थ: सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते है, अन्न की उत्पति वर्षा से होती है वर्षा यज्ञ से होती है यज्ञ कर्मो से संपन्न होता है कर्मो को तु वेद से उत्पन्न जन और वेद को अक्षर ब्रह्म से उत्पन्न हुआ जान इसलिए वह सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ(कर्त्तव्य-कर्म) में नित्य स्थित है


    गीता  अध्याय 3 श्लोक 16 | geeta chapter 3 shloka 16


    एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
    अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥3.16
    ēvaṃ pravartitaṃ cakraṃ nānuvartayatīha yaḥ ।
    aghāyurindriyārāmō mōghaṃ pārtha sa jīvati ॥

    Meaning: My dear Arjuna, a man who does not follow this prescribed Vedic system of sacrifice certainly leads a life of sin, for a person delighting only in the senses lives in vain.

    भावार्थ: हे पार्थ! जो मनुष्य इस लोक इस प्रकार प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुसार नही चलता है वह इन्द्रियों के द्वारा भोगो में रमण करने वाला अघायु(पापमय जीवन बिताने वाला) मनुष्य संसार में व्यर्थ ही जीता है



    Geeta chapter 3 shloka 17-24

    सांख्य (ज्ञानी) एवं ईश्वर के लिए भी कर्म की आवश्यकता
    (Need of karma(deeds) to follow your duties)


    गीता अध्याय 3 श्लोक 17 | geeta chapter 3 shloka 17

    यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
    आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥3.17॥

    yastvātmaratirēva syādātmatṛptaśca mānavaḥ ।
    ātmanyēva ca santuṣṭastasya kāryaṃ na vidyatē ॥3.17॥

    Meaning: One who is, however, taking pleasure in the self, who is illumined in the self, who rejoices in and is satisfied with the self only, fully satiated-for him there is no duty. भावार्थ: परन्तु जो मनुष्य अपने आप में ही रमण करने वाला हो और अपने आप में ही तृप्त हो तथा अपने आप में ही संतुष्ट है, उसके लिए कोई कर्तव्य है ही नही।


    गीता अध्याय 3 श्लोक 18 | geeta chapter 3 shloka 18

    संजय उवाच:
    नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
    न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥3.18॥

    saṃjaya uvāca:
    naiva tasya kṛtēnārthō nākṛtēnēha kaścana ।
    na cāsya sarvabhūtēṣu kaścidarthavyapāśrayaḥ ॥3.18॥


    Meaning: A self-realized man has no purpose to fulfill in the discharge of his prescribed duties, nor has he any reason not to perform such work. Nor has he any need to depend on any other living being.

    भावार्थः  कर्मयोग में स्थित मनुष्य का न ही कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न ही कर्म न करने से । और सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका थोडा सा भी स्वार्थ का सम्बन्ध नही रहता है


    गीता अध्याय 3 श्लोक 19 | geeta chapter 3 shloka 19

    तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
    असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ॥3.19॥

    tasmādasaktaḥ satataṃ kāryaṃ karma samācara ।
    asaktō hyācarankarma paramāpnōti puruṣaḥ ॥3.19॥

    Meaning: Therefore, without being attached to the fruits of activities, one should act as a matter of duty; for by working without attachment, one attains the Supreme.

    भावार्थः  इसलिए तु आसक्ति रहित होकर कर्तव्यकर्म का भलीभांति आचरण कर, क्योकि आसक्ति रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है


    गीता अध्याय 3 श्लोक 20 | geeta chapter 3 shloka 20

    कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥3.20॥
    karmaṇaiva hi saṃsiddhimāsthitā janakādayaḥ ।
    lōkasaṃgrahamēvāpi sampaśyankartumarhasi ॥3.20॥

    Meaning:  Even kings like Janaka and others attained the perfectional stage by performance of prescribed duties. Therefore, just for the sake of educating the people in general, you should perform your work. 

    भावार्थः  राजा जनक जैसे अनेक महापुरुष भी कर्मयोग के द्वारा ही परमसिद्धि को प्राप्त हुए थे इसलिए लोकसंग्रह को देखते हुए तु भी निष्कामभाव से कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुम्हे अवश्य कर्म करना चाहिए 


    गीता अध्याय 3 श्लोक 21 | geeta chapter 3 shloka 21

    यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥3.21॥
    yadyadācarati śrēṣṭhastattadēvētarō janaḥ । sa yatpramāṇaṃ kurutē lōkastadanuvartatē ॥3.21॥

    Meaning: Whatever action is performed by a great man, common men follow in his footsteps. And whatever standards he sets by exemplary acts, all the world pursues.

    भावार्थः  श्रेष्ट मनुष्य जो जो आचरण करता है, दुसरे मनुष्य भी वैसा वैसा ही आचरण करते है वह जो जो प्रमाण कर देता है दुसरे मनुष्य भी उसी के अनुरूप आचरण करते है 

    गीता अध्याय 3 श्लोक 22 | geeta chapter 3 shloka 22

    न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन । नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥3.22॥
    na mē pārthāsti kartavyaṃ triṣu lōkēṣu kiṃcana । nānavāptamavāptavyaṃ varta ēva ca karmaṇi ॥3.22॥

    Meaning: 0 son of Prtha, there is no work prescribed for Me within all the three planetary systems. Nor am I in want of anything, nor have I need to obtain anything and yet I am engaged in work.

    भावार्थः  हे पार्थ ! मुझे तीनो लोको में कुछ कर्तव्य है और न ही कोई प्राप्त करने योग्य वास्तु अप्राप्त है, फिर भी में कर्तव्य कर्म में ही लगा रहता हूँ 

    गीता अध्याय 3 श्लोक 23, 24 | geeta chapter 3 shloka 23, 24

    यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥3.23॥
    yadi hyahaṃ na vartēyaṃ jātu karmaṇyatandritaḥ । mama vartmānuvartantē manuṣyāḥ pārtha sarvaśaḥ ॥3.23॥
    यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्‌ । संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥3.24॥
    yadi utsīdēyurimē lōkā na kuryāṃ karma cēdaham‌ । saṃkarasya ca kartā syāmupahanyāmimāḥ prajāḥ ॥3.24॥

    Meaning: For, if I did not engage in work, 0 Partha, certainly all men would follow My path.
    If I should cease to work, then all these worlds would be put to ruination. I would also be the cause of creating an unwanted population, and I would thereby destroy the peace of all sentient beings.

    भावार्थः क्योकि हे पार्थ! यदि किसी समय सावधान होकर कर्तव्य कर्म न करू तो बड़ी विकट समस्या हो जाए, क्योकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते है यदि में कर्म न करू तो ये सभी मनुष्य नष्ट - भ्रष्ट हो जाए और में वर्णसंकरता को करने वाला होऊ और इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनु


    Geeta chapter 3 shloka 25 to 35

    अज्ञानी एवं तत्वदर्शी में अंतर एवं कर्म करने की प्रेरणा (difference between ignorant and learned person & motivating for karma )

    गीता अध्याय 3 श्लोक 25, 26 | geeta chapter 3 shloka 25, 26


    सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत । कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्‌ ॥3.25॥
    saktāḥ karmaṇyavidvāṃsō yathā kurvanti bhārata । kuryādvidvāṃstathāsaktaścikīrṣurlōkasaṃgraham‌ ॥3.25॥

    न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम्‌ । जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्‌ ॥3.26
    na buddhibhēdaṃ janayēdajñānāṃ karmasaṅiganām‌ । jōṣayētsarvakarmāṇi vidvānyuktaḥ samācaran‌ ॥3.26॥

    Meaning: As the ignorant perform their duties with attachment to results, similarly the learned may also act, but without attachment, for the sake of leading people on the right path. Let not the wise disrupt the minds of the ignorant who are attached to fruitive action. They should not be encouraged to refrain from work, but to engage in work in the spirit of devotion.

    भावार्थः  हे अर्जुन! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते है, तत्वदर्शी मनुष्य भी आसक्तिरहित होकर उसी प्रकार कर्म करे। परन्तु वह तत्वदर्शी मनुष्य, कर्मो में आसक्त मनुष्यों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करे (अर्थात उन्हें कर्म न करने के लिए प्रेरित न करे) अपितु वह स्वयं भलीभांति शास्त्रसम्मत कर्म करता हुआ उन लोगो से भी वैसे ही कर्म करवाए


    गीता अध्याय 3 श्लोक 27 | Geeta chapter 3 shloka 27


    प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥3.27॥
    prakṛtēḥ kriyamāṇāni guṇaiḥ karmāṇi sarvaśaḥ । ahaṃkāravimūḍhātmā kartāhamiti manyatē ॥3.27॥

    Meaning: The bewildered spirit soul, under the influence of the three modes of material nature, thinks himself to be the doer of activities, which are in actuality carried out by nature.

    भावार्थः  सम्पूर्ण कर्म सभी प्रकार से प्रकृतिजन्य गुणों द्वारा ही संपन्न होते है ,लेकिन अहंकार से मोहित अंतःकरण वाला मनुष्य "मै कर्ता हूँ" ईस प्रकार मानता है 

    गीता  अध्याय 3 श्लोक 28 | Geeta chapter 3 shloka 28


    तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
    गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥3.28॥
    tattvavittu mahābāhō guṇakarmavibhāgayōḥ ।
    guṇā guṇēṣu vartanta iti matvā na sajjatē ॥3.28॥

    Meaning: One who is in knowledge of the Absolute Truth, 0 mighty-armed, does not engage himself in the senses and sense gratification, knowing well the differences between work in devotion and work for fruitive results.

    भावार्थः  परन्तु हे महाबाहो! गुणविभाग एवं कर्मविभाग को अच्छे से जानने वाला तत्वदर्शी मनुष्य, "समूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे है" ऐसा मानकर उनमे आसक्त नही होता है


    गीता अध्याय 3 श्लोक 29 | Geeta chapter 3 shloka 29


    प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु । तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌ ॥3.29॥
    prakṛtērguṇasammūḍha़āḥ sajjantē guṇakarmasu । tānakṛtsnavidō mandānkṛtsnavinna vicālayēt‌ ॥3.29॥

    Meaning: Bewildered by the modes of material nature, the ignorant fully engage themselves in material activities and become attached. But the wise should not unsettle them, although these duties are inferior due to the performers' lack of knowledge.

    भावार्थः प्रकृतिजन्य गुणों से अत्यंत मोहित हुए अज्ञानी मनुष्य गुण एवं कर्मो में आसक्त रहते है उन पूर्णतया न समझने वाले मंदबुद्धि मनुष्यों को, पूर्णतया तत्व जानने वाले ज्ञानी मनुष्य विचलित न करे


    गीता अध्याय 3 श्लोक 30 | Geeta chapter 3 shloka 30 


    मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा । निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥3.30॥
    mayi sarvāṇi karmāṇi sannayasyādhyātmacētasā । nirāśīrnirmamō bhūtvā yudhyasva vigatajvaraḥ ॥3.30॥

    Meaning: Therefore, 0 Arjuna, surrendering all your works unto Me, with mind intent on Me, and without desire for gain and free from egoism and lethargy, fight.

    भावार्थः तु विवेक युक्त बुद्धि द्वारा सभी कर्तव्य कर्मो को मेरे अर्पण करके कामनारहित, ममतारहित एवं संताप रहित होकर इस युद्धरुपी कर्तव्य कर्म को कर।

    गीता अध्याय 3 श्लोक 31 | Geeta chapter 3 shloka 31


    ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः । श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः ॥3.31
    yē mē matamidaṃ nityamanutiṣṭhanti mānavāḥ । śraddhāvantō'nasūyantō mucyantē tē'ti karmabhiḥ ॥3.31॥

    Meaning: One who executes his duties according to My injunctions and who follows this(said in previous shlok) teaching faithfully, without envy, becomes free from the bondage of fruitive actions.

    भावार्थः जो मनुष्य दोष दृष्टि से रहित होकर श्रद्धापूर्वक मेरे इस मत (पिछले श्लोक में वर्णित) मत का सदा अनुसरण करते है, वे भी कर्मो के बंधन से मुक्त हो जाते है


    गीता अध्याय 3 श्लोक 32 | Geeta chapter 3 shloka 32


    ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌ । सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥3.32
    yē tvētadabhyasūyantō nānutiṣṭhanti mē matam‌ । sarvajñānavimūḍhāṃstānviddhi naṣṭānacētasaḥ ॥3.32॥

    Meaning: But those who, out of envy, disregard these teachings and do not practice them regularly, are to be considered bereft of all knowledge, befooled, and doomed to ignorance and bondage.

    भावार्थः परन्तु जो मनुष्य मेरे इस मत में दोष दृष्टि रखते हुए इसका अनुसरण नही करते, उन सम्पुर्ण ज्ञानो में मोहित एवं अविवेकी मनुष्यों को तुम नष्ट हुआ ही जानो


    गीता अध्याय 3 श्लोक 33 | Geeta chapter 3 shloka 33


    सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥3.33॥
    sadṛśaṃ cēṣṭatē svasyāḥ prakṛtērjñānavānapi । prakṛtiṃ yānti bhūtāni nigrahaḥ kiṃ kariṣyati ॥3.33॥

    Meaning: even a man of knowledge acts according to his own nature, for every one follows his nature. What can repression accomplish?

    भावार्थः सम्पूर्ण प्राणी प्रकृति को ही प्राप्त होते है ज्ञानी मनुष्य भी अपनी प्रकृति अनुसार ही आचरण करते है फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा?

    गीता अध्याय 3 श्लोक 34 | Geeta chapter 3 shloka 34


    इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥3.34॥
    indriyasyēndriyasyārthē rāgadvēṣau vyavasthitau । tayōrna vaśamāgacchēttau hyasya paripanthinau ॥3.34॥

    Meaning: Attraction and repulsion for sense objects are felt by embodied beings, but one should not fall under the control of senses and sense objects because they are stumbling blocks on the path of self-realization.

    भावार्थः इन्द्रिय व इन्द्रिय के अर्थ (प्रत्येक इन्द्रिय के प्रत्येक विषय) में राग और द्वेष व्यवस्था से छिपे है मनुष्य को इन दोनों के ही वश में नही होना चाहिए, क्योकि ये मनुष्य के परमात्मप्राप्ति के मार्ग में विघ्न डालने वाले शत्रु है

    गीता अध्याय 3 श्लोक 35 | Geeta chapter 3 shloka 35


    श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥3.35
    śrēyānsvadharmō viguṇaḥ paradharmātsvanuṣṭhitāt‌ । svadharmē nidhanaṃ śrēyaḥ paradharmō bhayāvahaḥ ॥3.35॥

    Meaning: It is far better to discharge one's prescribed duties, even though they may be faulty, than another's duties. Destruction in the course of performing one's own duty is better than engaging in another's duties, for to follow another's path is dangerous.

    भावार्थः अच्छी तरह से आचरण में लाये हुए दुसरे के धर्म से, गुणों की कमी वाला स्वधर्म श्रेष्ट है अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दुसरो का धर्म तो भय को देने वाला है



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